रास्ते अलग हो सकते हैं मगर मंजिल एक है।ब्रह्मांड और प्रकृति कीव्यवस्था से भीयही संकेत मिलता है। ब्रह्मांड की प्रणाली सद्भाव पर निर्भर है। इसका अस्तित्व एकता पर है। जिस दिनयह सामंजस्य समाप्त हो जाएगा और प्रलय आ जाएगी। प्रलय इसी सामंजस्य के पतन का नाम है। देखाजाए तो ब्रह्मांड धीरे-धीरे प्रलय की ओर बढ़ रहा है। ग्लोबल वार्मिंग का खतरा और पर्यावरण का संतुलन बिगड़ जाना इस बात काप्रमाण है कि ब्रह्मांड का सामंजस्य प्रभावित हो रहा है। इसलिए ग्लोबल वार्मिंग को ब्रह्मांड के अस्तित्व के लिए खतरा माना जा रहा है। और ऐसी परियोजनाएँ तैयार की जा रही हैं कि ब्रह्मांड की सुरक्षा को सुनिश्चित किया जा सके और ब्रह्मांडीय संतुलन बना रहे। सूफी गण ब्रह्मांड की प्रकृति के रहस्यों को जानते थे इसलिए वे इसी विषयपर सोचते थे। उन्होंने प्राकृतिक संतुलन के दीपकों को प्रज्वलित किया और ब्रह्मांड की हर वस्तु में परमेश्वर की परछाई देखी। उन्हें प्रकृति के हर कण में परमेश्वर का नूर (छाया) नज़र आता था। प्रकृति को देखने से अनुमान होता हैकि परमेश्वर ने इसमें कितना संतुलन स्थापित किया है। सूरा रहमान में इसी तरह के संकेत मिलते हैं जो मनुष्यों का ध्यान ब्रह्मांडीय सामंजस्य की ओर आकर्षित कराते हैं। सूफी विचारकों ने ब्रह्मांडीय अभिव्यक्तियों का गहरा अध्ययन किया है। इसीलिए उन के मस्तिष्क में प्राकृतिक सामंजस्य प्रबुद्ध है।
परमेश्वर ने ब्रह्मांड के प्राणियों के बीच जो सामंजस्य स्थापित किया है उसका दार्शनिक विवरण प्रसिद्ध दार्शनिक लाइबनीज़ ने उस समय किया जब उसने मस्तिष्क व शरीर के बीच पाएजाने वाले सामंजस्य को प्रमाणित करने के लिए “पूर्व स्थापित सद्भाव”( Pre-Established harmony) केसिद्धांत को प्रस्तुत किया। इसने अपने दर्शन का आधार जौहर(तत्व) की अवधारणा पर रखा। डीकार्ड और एसपोनज़ा की तरह इसका भी मानना था कि जौहर(तत्व) पूर्ण स्वतंत्र और आत्म निहित होता है। परंतु लाइबनीज़ का यह भी मानना था कि तत्वों/जौहारों की संख्या अनंत है जिन्हें उसने मूनाद का नाम दिया था। मूनाद वास्तव में एक प्रकार की शक्ति का केन्द्र हैं और निरंतर उसमें से ऊर्जा का उत्सर्जन होता रहता है। इसके अनुसार मूनाद, आत्मिक इकाईयाँ हैं और हर मूनाद एक दूसरे से पूर्णतःस्वतंत्र होता है और उनमें एक भी मूनाद ऐसा नहीं पाया जाता जो किसी दूसरे मूनाद के समरूप हो। उसने यह भी कहा कि हर मूनाद छिद्ररहित होता है इसलिए इनमें से कोई वस्तु न अंदर आ सकती है और न उसमें से बाहर जा सकती है। यह मूनाद एक दूसरे पर प्रक्रिया या सहक्रिया की शक्ति से भी मुक्त होते हैं। प्रत्येक मूनाद अपने स्वरूप में एक सूक्ष्मदर्शीय ब्रह्मांड समाहितरखताहै जो सारे संसार को अपने विशेष दृष्टिकोण से प्रतिबिंबित करताहै। मूनादों के बीच एक विशेष व्यवस्था पायी जातीहै। इस व्यवस्था के अनुसार न्यूनतम मूनादेंचेतनारहित मूनादकहलाते हैं जो भौतिक दुनिया के प्रस्तुतकर्ता होते हैं। इन मूनादों के ऊपर के स्तर में“सचेतना मूनाद” होते हैं जो जैविक दुनिया का प्रतिनिधित्व करते हैं। इससे ऊपर के स्तर में” स्वयं अवगत मूनाद” होते हैं जो चेतन बुद्धि प्राणियों के प्रतिनिधि हैं। और सबसे ऊपर, मूनादों का मूनाद, परम(उच्चतम) मूनाद अर्थात परमेश्वर है। मूनादों के संबंध में लाइबनीज़ ने जो जानकारी दी इस पर आपत्ति करते हुए यह प्रश्नउठाया गया कि अगर मूनाद छिद्ररहित, पूर्ण स्वतंत्र और आत्म निहित इकाईयाँ हैं तो आत्मिक मूनाद और शारीरिक मूनाद में कैसे संबंध स्थापित किया जा सकता है।लाइबनीज़ ने इस समस्या का समाधान “Pre-Established harmony” के सिद्धांत से निकाला और कहा कि मूनाद अर्थात सर्वशक्तिमान भगवान ने सृजन के प्रारंभ में ही ध्यान और शरीर के बीच एक समन्वय प्रासंगिकता पैदा कर दी थी। लाइबनीज़ कहता है कि जिस तरह कोई विचार सोचने वालेके दिमाग से उभरता है इसी तरह भगवान के आदेश से हर मूनाद ब्रह्मांड में प्रकट हुआ। भगवान ने उन मूनादों को इस तरह बनाया है कि उनमें से किसी में भी अगर कोई परिवर्तन होता है तो दूसरे मूनाद में भी उसी के अनुकूल अनिवार्य रूप से परिवर्तन होजाता है। अर्थात् भगवान ने सभी मूनादों को इस तरह व्यवस्थित किया है कि यह एक दूसरे से समन्वय होते हुए काम करते हैं और प्रक्रिया के परिणामस्वरूप होने वाले बदलाव एक दूसरे से पूरी तरह अनुकूलन रखते हैं। हीगल, ब्रेडले, बोज़ानके, राईयस, क्रुचे और जनटाइल आदि दार्शनिकब्रह्मांड के बारे में मुख्य रूप से इस बात पर सहमत थे कि ब्रह्मांड के निर्माता आत्मा और अक़्ल हैंऔर इस बात पर भी सहमत थे कि समस्त ब्रह्मांड में एक जैविक एकता(Organic Unity) मौजूद हैऔर इस एकता में पूर्ण उद्देश्य और अर्थ है।ब्रह्मांड के स्रोत और मानव हृदय में एक तरह का स्व सद्भाव (Self Harmony)है। प्रकृतिकीइस व्यवस्थाकेपीछे एक आत्मिकविन्यास, एक संगत और संतुलन पाया जाता है।
दुनिया के सभी पवित्रधार्मिक पुस्तकों में भी इस बात का खुलासा किया गया है कि सर्वशक्तिमान ईश्वर ने एक विशेष प्रणाली के अंतर्गत इस ब्रह्मांड की रचना की और रचना की हुई आस्तियोंमें सद्भाव पैदा किया। जैसे चाँद, सूरज और पृथ्वी अपनी कक्षा में एक दूसरे की परिक्रमाएक प्रणाली के अंतर्गत करते हैं जिसके कारण सुबह होती है, दिन होता है, शाम होती है फिर रात होती हैऔर यूंही समय बीतता रहता है। यानी इन तीनों ग्रहों में सामंजस्य पायाजाता है और उनमें होने वाले परिवर्तन के प्रभाव प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष रूप में कई चीजों पर पड़ते हैं जैसे इन सभी ग्रहों में होने वाले परिवर्तन और स्थान(Location) केप्रभाव मानव जीवन पर भी पड़ते हैं। इससे मालूम होता है कि सितारों की चाल और उन के स्थान (Location)में सामंजस्य होता है। इन ग्रहों के परिक्रमा से समय में परिवर्तन आता है। समय के परिवर्तन से मौसम बदलते हैंऔर फिर मौसम परिवर्तन से फल, फूल और अनाजों के कई प्रकार के उत्पादन होते हैं। अर्थात्आकाश, जमीन और समुद्र में पाई जाने वाली ऐसी कोई चीज़ नहीं है जिनका संबंध दूसरी चीजों से न होऔर उनमें होने वाले परिवर्तन के प्रभाव एक दूसरे पर नहीं पड़ते हों और इन सभी पदार्थों में सामंजस्य न पायाजाता हो। अतः ब्रह्मांड में ऐसी कोई चीज नहीं है जिसका मानवसेसंबंध स्थापित नहो सके।
हमारा देश भारतब्रह्मांडीय एकता और सद्भाव का महानतम उदाहरण और सूचकहै। यहाँ की भूमि में सद्भाव का सबसे सुंदर बदलावदिखाई देता है। बुद्ध,जैनऔरअनगिनत सूफी संतयहां पैदा हुए जिन्होंने परमेश्वर के संदेश और ब्रह्मांड की सच्चाई का वर्णन औरप्रचार अपने विश्वास के अनुसारकिया लेकिन इन सबका उद्देश्य और लक्ष्य एक ही रहा है। उन्हीं सूफियों,संतों औरऋषि-मुनियों के संदेश का प्रभाव था कि भारत को गुलिस्तां और भारतीयों को कभी अलग अलग रंगों के फूलों से तो कभी बुलबुलों से निरूपित किया गया। क्योंकि बुलबुलों की तरह सभी भारतीय प्यार के ही तराने गाते थे। यह वास्तव में भारतीय सर्वधर्मसंभाव , उदारता और एकता का चमत्कार था।
एम.जे. अकबर ने भारतीय सर्वधर्मसंभाव पर टाइम्स ऑफ इंडिया में अपनेएक लेख में सही कहाहैकि भारत एक ऐसा देश हैजहां धर्मनिरपेक्षता सुनाई देती है। आप वाशिंगटन और लंदन में एक मुस्लिम होसकते हैं और अपनी पसंद की मस्जिद में नमाज़के लिए जा सकते हैं, लेकिन आप आज़ान नहीं सुन सकते हैं। भारत में सुबह का स्वागत आज़ान की धीमी और प्रफुल्ल आवाज, मंदिर की घंटी की मधुर गीत,गुरुद्वारा में किया जा रहा ग्रंथ साहिब के सद्भाव पाठ और चर्च से गड़गड़ाहट के शब्द के साथ किया जाता है।
भारत की सदियों पुरानी संस्कृति,धार्मिक सहिष्णुता, आपसी प्रेम और राष्ट्रीय एकता हमारे देश की बहुत बड़ी खूबी और सबसे बड़ी शक्तिभी थी जिसके कारण कई दूसरे देश डरते थे। यही कारण है कि लॉर्ड मेकाले ने फरवरी 1835 ई में ब्रिटिश संसद में कहा था:
“मैंने पूरे भारत की यात्रामें न तो कोई फकीर देखा और न चोर। देश में नैतिक मूल्यों और लोगों की क्षमताओं की ऐसी दौलत पाई जाती है जिसे खत्म करके और आध्यात्मिक विरासत को ध्वस्त करके ही हम उस पर पूरा कब्जा जमा सकते हैं। इसलिए हमारा सुझाव है कि उसके पुराने मूल्यांकन, शिक्षा विधि को पूरी तरह बदल दिया जाए ताकि भारत हर विदेशी और अंग्रेजी चीज़ को अपनी चीज़ोंसे अच्छा समझने लगे। तभी वह आत्मविश्वास और संस्कृति से वंचित होकर हर तरह से हमारे अधीन और वश में हो सकते हैं।”
(स्थानांतरित:डी.सी.मनजूदास, आई.एफ.एस, Social Harmony and Economic Development (P: 48-49)
भारत केइन्हीं मूल्यों को देखते हुए अल्लामा इकबाल ने कहा था:
कुछ बात है कि हस्ती मिटती नहीं हमारी।
सदियों रहा है दुश्मन दौर-ए-ज़माँ हमारा।।
सामाजिक सद्भाव और धार्मिक सहिष्णुता भारत में हमेशा रही है और यहां की विभिन्न संस्कृति और सभ्यताकी विरासत परहम गर्व महसूस करते रहे हैंपरंतु आज पूरे देश में फैली हुई सांप्रदायिक तनाव, धार्मिक कटरपन, अलगाववाद, क्षेत्रीयता और भाषाई भेदभाव नेदेश की अखंडता और एकता को खतरे में डाल दिया है।मज़हब की आड़ में वर्षों से शासन करने वाली राजनीतिक पार्टी अपने स्वार्थ के लिए विध्वंशक शक्तियों के साथ मिलकर देश में अराजकता और अशांति पैदा करती आ रही है।स्वतंत्रताके बाद सामाजिक स्थिति की अगर समीक्षा की जाए तो पता चलेगा कि धार्मिक और सांप्रदायिक तनाव सीमा से अधिक बढ़ गई है। जिसके कारण हमारी स्वतंत्रता और लोकतंत्र को खतरा हो गया है। हमारी भारतीय संस्कृति मिट रही है।ऐसी दुर्घटनाओं और स्थितियोंसेयहांकी आर्थिक परिस्थितियों पर भी नकारात्मक प्रभावपड़रहे हैं।इन परिस्थितियों में भारत को सुरक्षित रखने के लिए सामाजिक सद्भाव और राष्ट्रीय एकता को फिर से बहाल करना होगा। साझी संस्कृति और सभ्यता, धार्मिक सहिष्णुता और आध्यात्मिक मूल्यों को फिर से स्थापित करना होगा। क्या यह सच नहीं कि हमारे देश में दुनिया के महान धर्मों के मानने वाले, कई भाषाओं के बोलने वाले और विभिन्न संस्कृति और रीति रिवाज मानने वाले भौगोलिक और भाषाई मतभेदों के बावजूद सैकड़ों सालों से मिलजुल कर रहते आ रहे थे और यह सिर्फ इसलिए कि वे धार्मिक और सूफी शिक्षाओं से परिचित थे और हमारे देश के बुद्धिजीवियों और दार्शनिकोंने हमेशा मिलजुल कर रहने की शिक्षा दी। स्वामी विवेक नन्दने एक जगह लिखा है:
“अगर तुम अपने भाई की जो परमेश्वर की कुदरत का सूचक है, सम्मान नहीं करोगे तो भला तुम भगवान की पूजा कैसे कर सकोगे जो भौतिक रूप से एकता और हर जलवा (प्रतिरूप)से मुक्त है।”
वास्तव में भारत प्रारंभ से सूफियों, संतों और ऋषि-मुनियोंका केंद्र रहा है जिनकी शिक्षा और संदेशने हमें इंसान दोस्ती और प्यार का पाठ सिखाया है।यहाँ नबियों (ईशदूतों) और धार्मिक पुस्तकें भेजीगईं जिनके तुलनात्मक अध्ययन से पता चलता है कि दुनिया में एक ही धर्म है, एक ही परमेश्वर है जिसने इस ब्रह्मांड की रचना की और हम सब उसी के जंतु हैं।भारत के दो महान धर्मों, इस्लाम और वैदिक धर्मों की किताबों, क़ुरआन शरीफ और पवित्र वेद का तुलनात्मक अध्ययन किया जाए तो मालूम होगा कि दोनों धर्मोंके बीच बहुत समानता हैऔर लगभग दोनों पवित्र पुस्तकों में एक ही तरह की बातें बताई गई हैं। जैसे सूरा निसा, पारा छः, मेंसर्वशक्तिमान ईश्वरनेफरमाया है कि पैगंबर हज़रत मुहम्मद से पहले भी कई रसूल खुली खुली निशानियाँ, सहीफे और प्रकाश देने वाली पुस्तकों के साथ भेजे गए हैं। वेदों में भी कहा गया है कि जब-जब धर्म का नाश होगा तब तब हम (परमेश्वर) मनुष्य के रूप में इस धरती पर आएंगे। क़ुरआन में आगे कहा गया है कि वह रसूल(मैसेन्जर) भी (जिन्हें रहस्योद्घाटनकासौभाग्य प्राप्त हुआ) जिनका उल्लेख आपसे क्या है और वह रसूल(ईशदूत) भी(जिन्हें रहस्योद्घाटनकासौभाग्य प्राप्त हुआ) जिनका उल्लेख आपसे नहीं किया है। इन दोनोंदिशानिर्देशोंकी रौशनी मेकई सूफियों, आलिमों मुस्लिम बुद्धिजीवियों ने वेद को दिव्यकिताब और ब्रह्मा, जिन पर वेद प्रगट हुई है, पैगंबर माना है। अख़लाक़ हुसैन देहलवी ने बताया है कि आधुनिक शोध के अनुसार हज़रत इब्राहीम अलैहिस्सलाम ही ब्रह्मा हैं जिन पर पवित्र वेद प्रकट हुए।आश्चर्य और आनन्द की बात यह है कि मुसलमान हर नमाज़ में इब्राहीमअलैहिस्सलाम और उनके वंश के लिए दरुद शरीफ के माध्यम से सुरक्षा की प्रार्थना करते हैं। फिर दोनों धर्मों में नफरत क्यों?
इस संबंध में हज़रत मिर्ज़ा मज़हर जान-ए-जाना शहीद जो अपने समय के महान धार्मिक विद्वान, सूफी और दरवेश थे, ने लिखा है:
“भारत की प्राचीन पुस्तकों से जो कुछ मालूम होता है वह यह है कि मानव जाति के जन्म की आरंभ में अपने सांसारिक जीवन सुधारने के लिए और मृत्यु के बादके जीवन कोसुधारने के लिए अल्लाह पाक ने अपनी कृपा से वेद नामी किताब ब्रह्मा (भविष्यद्वक्त) केमाध्यम से स्वर्ग से धरती पर उतारा जो ब्रह्मांड की रचना से संबंधित है। इसके चार भाग हैं जो आदेश औरनिषेध और अतीत और भविष्यका अखबार हैंक़ुरआन”
( स्थानांतरित:अल्लामा अख़लाक़हुसैन देहलवी, वैदिक धर्म और इस्लाम, पृष्ठ – 9,19 )
वेदों के मुस्लिम विद्वानों के अनुसार चारों वेदों मेंपहला ऋग्वेद है जिसके अधिकांश श्लोक में भगवान के भजन शामिलहैं। इसमें नरक के प्रकोप, स्वर्ग का आनंद, एकेश्वरवाद और आखिरत(मृत्यु के बाद का जीवन)कीअवधारणा का ऐसा ही उल्लेख किया गया है जैसा कि क़ुरआन शरीफ में मौजूद है। ऋग्वेद में पैगंबर हज़रत मोहम्मद के बारे में भविष्यवाणी भी है। इसमें कहीं कहीं मिस्र, सीरिया, बाबुल और फ़िलिस्तीन केयोद्धाओंका उल्लेख भी है। नूह(पैग़म्बर) की नावऔर तूफानऔर नमरूद की आग का उल्लेख है। दूसरा यजुर्वेदहै जिसका अंतिम भाग ज्ञान धर्मशास्त्र पर आधारित है। तीसरा सामवेद है।इसमें भी हज़रत मुहम्मद से संबंधित भविष्यवाणी, मौजूद है। चौथा अथर्ववेदहै। जिसे परमात्मा ज्ञान भी कहते हैं इस में एकेश्वरवाद और परमात्मा-गुण का उल्लेख है और आख़िरत(मृत्यु के बाद जीवन)का अवधारणा का उल्लेखमिलता है।इसमें में पैगंबर हज़रत मोहम्मद के बारे में भविष्यवाणी भी है।ध्यान देने की बात है कि इन वेदों को संपादित करने वाले व्यक्ति मुनिव्यास देव जी ने इंजीलवादी,पैगंबर मुहम्मद के बारे इन वेदों में जो कुछ लिखा है।उसका सारांश अपनी एक किताब“राह संग राम पोथी”में छठी कांड,बारहवीं खंडमें लिखा है जिसका अनुवाद तुलसीदास जी ने पूरबी भाषा मेंकिया है,इसका अनुवाद पेश किया जाता है।
“यहाँ कोई बात रखूंगा नहीं (छिपाउंगा नहीं) जो वेद पुराण में लिखा है वही सच सच कहूँगा। दस हजार वर्ष तकदूत बनाने की प्रक्रियाकासमापन हो जाएगा बाद में यह रुत्बा कोई नहीं पाएगा।अरब देश में एक सितारा जगमगाए गा।वह धरती भी अच्छी शान की होगी। अनहोनी बातें(चमत्कार) उससे प्रकट होंगा वह अल्लाह का दोस्त और उदार दाता कहलाएगा। दिशा बिक्रम कीदिशाओं के अनुसार सातवीं सदी में होगा बहुत अंधेरी रात में चार सूरजों के अनुरूप चमकेगा।”
(स्थानांतरित:अल्लामा अख़लाक़ देहलवी, वैदिक धर्म और इस्लाम, पेज- 20)
वेदों में मौजूद वह सभी बातें जो क़ुरआन से मिलती हैं और इसके अतिरिक्त हज़रत मुहम्मद से संबंधित जो भविष्यवाणियां की गई हैं, उससे पता चलता है कि वेद भी कुरान शरीफ की तरह आसमानी किताब है। हज़रत मौलाना फ़ज़ल रहमान गंज मुरादाबादी ने क़ुरआन का पूरबी भाषा में अनुवाद किया है इसके अतिरिक्त कई अन्य हिंदू विद्वानों ने कुरान का हिंदी में अनुवाद किया है जिसे पढ़ कर वेद के श्लोक का आभास होता है। उसी तरह वेदों के शलोकों का अरबी और उर्दू में अनुवाद किया गया है जो कुरआन की आयतों की तरह मालूम होता है।इसलिए हजरत मिर्जा मजहर जान-ए-जाना ने फ़रमाया कि वैदिक धर्म नियमित रूप से दीन(धर्म)रहा है। इसी तरह हज़रत अमीर ख़ुसरो ने वैदिक धर्म का गहन अध्ययन किया था और पूर्व धर्मों से तुलना करके उन पर वैदिक धर्म को प्राथमिकता दी थी।अपने एक फ़ारसी शेर:
नेस्त हिंदू अर्चे दीनदारचूमा।
हस्त उ लेकिन बेक़रार चू मा।।
अर्थात् हिन्दू यद्यपि हमारे जैसे दीनदार तो नहीं हैं, मगर कई बातों में हम और वो एक ही हैं। उन्होंने वैदिक धर्म के महत्व को प्रदर्शित करने के लिए अपनी मसनवी “ना सपहर” में पंद्रह शेर तुलना के रूप में शामिल किए हैं जो अंतर्दृष्टि से पूर्ण हैं। अबू रेहान अलबेरूनी ने मुनि पतंजलि की पुस्तक “योगणतरा”जो योग-दर्शन(आध्यात्मिकता)पर आधारित है,से एकउद्धरणउद्धरितक्या हैवह यह है:
“पवित्र प्रभु वह परमेश्वर हैं जो ब्रह्मा (हज़रत इब्राहीम) और पुराने बुधीमानों (हज़रत मूसा)۔से अलग तरीकों से बात की थीउनमें से किसी को आसमानी किताब दी और किसी अन्य तरीके से ज्ञान दिया और किसी पर रहस्योद्घाटन भेजी। यद्यपि इंद्रियां इसका (भगवान का) पहचान नहीं कर सकती हैं लेकिन आत्मा उसे समझती है और ध्यान से उसकी विशेषताओं का एहसास संभव है। यही ध्यान सही मायने में उसकी पूजा है। और ध्यान को हमेशा बनाए रखने से वास्तविक कल्याण और आनन्द नसीब होता है।”
इस उद्धरण में जो कुछ कहा गया है यह सूरा अल-बकरा, सूरा अल-निसा औरहदीस-ए-एहसान में भी कहा गया है।
गीता में भी भगवान कृष्ण ने कहा है कि मैंसमस्त हूँ जिसका न तो जन्म से आरंभ हुआ और न मृत्यु से अन्त होगा ……….. मैंने हर प्राणी को वह क्षमता दी हैं जिनकी उनको आवश्यकता है।जो व्यक्ति मुझे इन विशेषताओंसे संपन्न समझकर मेरा ध्यान करेगा और अपनी इच्छाओं से अपने कार्यों को बचाए रखेगा उसके बनधनखुल जाएंगे और उसकी मुक्ति आसान हो जाएगी।
भगवान कृष्ण ने गीता में यह भी उल्लेख किया है कि ज्यादातर व्यक्तियों का यह हाल है कि दुख और संकट में तो भगवान से लौ लगाते हैं लेकिन जब अनुसंधान कर के देखो तो पता चलेगा कि वे ज्ञान और अनुभूति से कोसों दूर हैं। कारण यह है कि भगवान को इन्द्रियों से अनुभव नहीं किया जा सकता।इसलिए सामान्य रूप से मनुष्य अनभिज्ञ रहता है। वह यह नहीं समझता कि अनुभव और प्रकाशनों से ऊपर एक ईश्वर है जिससे न कोई पैदा हुआ है और जिसको न किसी ने पैदा किया है।जिस की वास्तविकता तक किसी कीपहुंच भी नहीं हो सकती परंतु वह स्वयं हरचीज़ का पूरा और वैश्विक ज्ञान रखता है।
भगवान कृष्ण के ये उपदेश भीसूरा यूनुस 22.23, पारा 11 और सूरा, बनी इसराईल.67, पारा 15 में भी मौजूद है।शायद इसीलिएक़ुरआन केटिप्पणीकार हज़रत क़ाज़ी सानाउल्लाह पानीपती ने आयात-ए-मुबारका की व्याख्या में लिखा हैकि “भारतीयों के धर्म के सिद्धांत अक्सर तो कुरान और सुन्नत के अनुरूप हैं और जहां मतभेद हैं वहां शैतान की कारस्तानी का परिणाम है”। सानाउल्लाह पानीपती के टिप्पणी को ऐसे भी कहा जा सकता है कि कुरान और सुन्नत के सिद्धांत भारतीयों अर्थात् हिंदू धर्म के अनुसार है क्योंकि हिंदू धर्म सबसे पुराना धर्म है।
प्रसिद्ध इतिहासकार और आलिम-ए-दीन सैयद शाहबुद्दीनअब्दुर्रहमान और डॉक्टर सैयद महमूद के अनुसार हज़रत मौहम्मद ने फ़रमाया कि मुझे भारत सेरब्बानी खुशबू (दिव्य खुशबू) आती है। और मुहम्मद साहब के दामाद हज़रत अली ने कहा कि यह (भारत) सबसे पवित्र और खुशबू दार स्थान हैक्यों कि यहां हज़रत आदम उतरे और यहां के पेड़ में स्वर्ग की खुशबू का असर है। इन लोगों का मानना है कि रब्बानी (दिव्य) खुशबू और स्वर्ग की खुशबू का अर्थ यह है कि यहां कोई स्वर्गीय किताब(अर्थात् पवित्र वेद)जरूर उतरी है । अल्लामा इकबाल ने भी कहा है:
हिंद ही बुनियादहै उसकी न फारस है न शाम
वह्दतकी लै सुनी थी दुनिया ने जिस मकाँ से
मीर-ए-अरबको आई ठंडी हवा जहाँ से
मेरा वतन वही है, मेरा वतन वहीहै
(बुनियाद=आधार, वह्दत=एकता, मीर-ए-अरब=हज़रत मोहम्मद,)
हज़रत मुहम्मद और हज़रत अली के वक्तव्यों को देखते हुए कहा जा सकता है कि भारत की धरती पूजा के योग्य है। और दुनिया का सबसे पुराना धर्म अर्थात् “वैदिक धर्म” सम्मान के योग्य है। इस से यह निष्कर्ष निकलता है कि केवल क़ुरआन ही नहीं बल्कि सभी दिव्य किताबों का आधार वेद ही है। इसलिए यह कहना गलत नहीं है कि धर्म एक है, पंथ अलग हैं।
अल्लामा इकबाल ने भी हिंदू सूफियों, ऋषियों और मुनियों की पुस्तकें जो संस्कृत भाषा में हैं पढ़ी थी। उन्होंने वेदों का भी अध्ययन किया था जिससे उन्होंने वैदिक धर्म,श्रीरामचंद्र जी और कृष्ण भगवान जैसे महापुरुषों की महानता को स्वीकार किया है और वेदों के कई शलोकों का अनुवाद कविता के रूप मेंकिया है। श्री राम चंद को श्रद्धांजलि देने के लिए उन पर एक कविता लिखी है जिसका शीर्षक “राम” है। उन्होंने ऋग्वेद की एक प्रसिद्ध मंत्र गायत्री मंत्रका अनुवाद”आफ़्ताब” के शीर्षकसे किया है। इससे संबंधित उन्होंने संक्षिप्त टिप्पणी भी लिखी थी जो”बाँग-ए-दरा”के विशेष नुस्खे मेंहै।उन्होंने कहा कि संस्कृत शब्द “सूत्र” कासमानअर्थ और व्यापक शब्द उर्दू भाषा में न मिलने की मजबूरीसेशब्द ”आफ़्ताब” को सूत्र का पर्याय बताया है। इब्न-ए-अरबी ने भी कहा है कि अल्लाह एक प्रकाश है जिससे सभी चीजें दिखती हैं। इकबाल की प्रसिद्ध रचना ”बाल-ए-जिबरील” की शुरूआत में भरतरी हरी, जो एक सूफी कवि और वेदों के विशेषज्ञ थे, केविचार इस शेर में व्यक्तकिया है, लेकिन शेर पर भरतरी हरी का ही नाम लिखा है:
“फूल की पत्ती से कट सकता है हीरे का जिगर
मर्द-ए-नादां पर कलाम-ए-नरम नाजुक बेअसर”
इकबाल ने वेदांता दर्शन कीचर्चा करते हुए “इसरार-ए-खुदी”की भूमिका में लिखा है कि:
“मानवता के इतिहास में श्री कृष्ण का नाम हमेशा आदर और सम्मान से लिया जाएगा कि उसी अद्भुत इन्सान ने बहुत मोहकशैली में अपने देश और राष्ट्र की दार्शनिक परंपराओं की आलोचना की और इस तथ्य को प्रकट किया कि कार्यत्याग से तात्पर्य समस्त त्याग नहीं है क्यों कि क्रिया प्रकृति की मांग है और इसी से जीवन का स्थायित्व है बल्कि कार्यत्याग का मतलब यह है कि कार्य के परिणाम से संबंधित आसक्ति/लगाव न हो।”
(संदर्भ: मैकश अकबराबादी, नकद-ए-इकबाल, पेज नंबर-96)
मध्यकालिक में विभिन्न धर्मों के बीच सद्भाव और सहिष्णुता पाई जाती थी। इस युग में कई सूफी कवि, संत जिन में नानक, कबीर, ख़ुसरो, तुकाराम इत्यादि विशेष थे। सभी लोगों ने प्यार और अनेकतामेंएकताकेप्रवचन दिये खास रूप मेंसंत कबीर ने जाति, रंग और धर्म के आधार पर मतभेद के खिलाफ आवाज बुलंद की। उन्होंने मुल्लाओं और पंडितों को अपने व्यंग्य का निशाना बनाया।अपने दोहे में उन्होंने कहा कि
पंडित कहे मोहेराम प्यारा
तुर्की कहे रहीमाना
दोनों लड़ लड़ मर गए मुआ
पर राम को कोई न जाना
उस ज़माने के एक और प्रसिद्ध सूफी संत गुरू नानक ने एक ऐसे धर्म की नींव डाली जिसमें दोनों धर्मों हिन्दू और इस्लाम के गुणों को शामिल किया।उन्होंने देश के कोने-कोने में घूम करसूफियों औरऋषि-मुनयों से भेँट की और उन सब की शिक्षाओं औरवचनो को इकट्ठा किया और उन्हें सिख धर्म की पुस्तकआदीग्रंथ में शामिल किया।बाबा फरीद शकर गंजके उपदेश आज भी आदिग्रंथ में उदाहरण के रूप में शामिल हैं।उस समय के सभी सूफियों ने धार्मिक सहिष्णुता, शांति और आपसी मेलजोल का प्रचार किया। हिंदु लोगों को उनकी धार्मिक पुस्तकों और मुसलमानों को इस्लामी शिक्षाओं की रोशनी में सही रास्ते पर चलने कापाठ सिखाया। सांप्रदायिक घृणा की जगह उच्च नैतिक मूल्यों की शिक्षा दी और कहा कि भगवान कणकण में उपस्थित है। ख्वाजा मोईनुद्दीन चिश्ती, ख्वाजा निजामुद्दीन औलिया और बाबा फरीद शक्कर गंज जैसे सूफियों ने भारत की शानदार सांस्कृति में सूफी पंथ फैलाया जिससे धार्मिक सहिष्णुता और सामाजिक सद्भावस्थापित हुआ। हज़रत अमीर ख़ुसरो ने हमारी साझी सांस्कृति में सूफी विचारधार को फैलाने के साथ साथ उर्दू और हिंदी भाषाओं के विकास के लिए योगदान दिया। उन्हों ने अपने काव्य को एक ही समय में फ़ारसी, उर्दू और हिंदी शब्दों से सजाया। तबला के अलावा संगीत के कई रागोंका आविष्कार किया। कव्वाली को भीपरम्पराकारूप दिया, इसलिए हिंदू और मुस्लिम दोनों उन से प्यार और श्रद्धा रखते हैं। इसलिए कहा जाता है कि वह भारत की संस्कृति का सबसे अच्छा उदाहरण हैं। इन सूफियों के अतिरिक्त रामानुजन, शंकराचार्य, त्याग राज और रामानंद जैसे कवियों और संतों की सेवाओं को भी भुलाया नहीं जा सकता।
रवींद्रनाथ टैगोर ने भी धार्मिक सहिष्णुता, राष्ट्रीय एकता, आपसी मेलजोल और प्यार का पाठ सिखाया है। उन्होंनेजीवन के गठबंधन (Oneness) के अवधारणा को रचनात्मक और दर्शन का आधार बनाया क्योंकि उन्होंने हमेशा यह महसूस किया है कि मनुष्य और प्रकृति (Nature) के बीच एक करीबी संबंध है। उन्होंने अपनी एक कविता में भी इस को अभिव्यक्तकियाहै:
” My heart is full, full of joy,no one is outside,and all are within my heart.”
एक दूसरी कविता में वे कहते हैं:
“Come brother,come, and plunge into this stream of life, to be carried away with the world current in company with the sun,moon and stars.”
वास्तव में उनकी कविताओं से पता चलता है कि वह न केवल मनुष्य और ब्रह्मांड-प्रकृति के गहरे गठबंधन को तीव्रता से महसूस करते थे बल्कि इंसान और ब्रह्मांड के बीच गहरेसमीकरण को महसूस करते थे। जीवन समीकरणकी अवधारणा से कवि का यह विश्वास उभरता है कि सभी केसभी जीवन एक है क्योंकि भगवान भी एक है। कबीर की शिक्षाओं और उन के दर्शन का प्रभाव भी उनकी कविता पर पड़ा था जिसके कारण उन्होंने इस्लाम और हिंदू धर्म में उपस्थित कठोर दृष्टिकोण का विरोध किया।
बाल संगीत, (Baul songs) में पाई जाने वाली सादगी, विचार में गहराई और दर्द से भरी आवाज नेभी सामाजिक घृणा समाप्त करने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई थी। बाल संगीत वास्तव में बंगाल के गांव गांव में घूम घूम कर गायाजाने वाला वह क्षेत्रीय संगीत है जो मानवीय और आपसी प्यार सिखाता है। इस संगीत से जो संदेश मिलता है उसके अनुसार भगवान आदमी के दिल में रहता है। इसलिए मनुष्य से घृणा करने का कोई कारण नहीं है, लेकिन सच तो यह है कि मनुष्य ही वह मूल भगवान है जो प्यार और सेवा के किये जाने के योग्य है।
यहां के सभी चिंतकों, सूफियों और संतों के विचारों या विचारधारा को जनता तक पहुँचाने में कवियों ने भी महत्वपूर्ण भूमिका निभाई है। वास्तव में कविता ही अभिव्यक्ति का माध्यम है क्योंकि कोई भी दर्शन या दार्शनिक चिंता कवि के दिल से निकलकर पाठक और श्रोता के दिल तक पहुंचता है।
सूफियों के विचारों की व्याख्या जिन महान व्यक्तियों ने की है उनमे शैख़ मोहयुद्दीन इब्न-ए-अरबी महत्वपूर्ण हैं। ब्रह्मांड और ईश्वर के बीच जो प्रासंगिकताहै इस संबंध में शेख अकबर कहते हैं कि यह ब्रह्मांड भी ठीक एकल परमेश्वर के अनुरूप है। इसलिए उस समरूपता का इक़रार या तो वहब्रह्मांड के अस्तित्व की नफ़ी यानी इंकार से करते हैं या भगवान के इक़रार से। ब्रह्मांड के अस्तित्व से इनकार करते हुए वह कहते हैंकि ब्रह्मांड जैसा कि वह है इसे केवल तथाकथित, काल्पनिक और भ्रम ही कहा जा सकता है। जो वस्तुनिष्ठता(Objectively) के रूप में उपस्थित नहीं है। अस्तित्व केवल परमेश्वर ही काहै। यह ब्रह्मांड और उस की बहुतायत अगर उपस्थित है तो इस की स्थिति इसी समस्त एकल अर्थात् परमेश्वर के शोक की सी है। पहली स्थिति में शेख कहते हैं कि ब्रह्मांड अस्तित्वहीन है। वह कहते हैं: ”الاعيانماشمترائحتهمنالوجود”(अर्थात्ब्रह्मांड अभी तक अस्तित्व की महक तक नहीं सूँघी है अर्थात् ब्रह्मांड अभी अस्तित्व में नहीं आया।)
(स्थानांतरित:फलसफे बुनियादी मसाएल, क़ाज़ी क़ैसरुल इस्लाम, पी: 144)
दूसरी स्थिति में वह कहते हैं:
“संसार ही परमेश्वर है। यह उसी एकल-परमेश्वर कीअभिव्यक्ति है जिसमें परमेश्वर ने स्वयंको प्रकट किया और अपनी अभिव्यक्तिके प्रकाश में स्वयं को पूरी तरह छिपा लिया।इन अभिव्यक्तियोंसे अलग परमेश्वरका अपना अस्तित्व नहीं है, (مابعدہذاالاالعدمالمحض) अर्थात् इन अभिव्यक्तियोंसे परे केवल शून्य के अतिरिक्त कुछ नहीं है। अतः साधक के लिए इस दुनिया से परे परमेश्वर की आकांक्षा व्यर्थ है।
अतः इस स्थिति से पता चलता है कि भगवान या अस्तित्व इन्हीं विशेषताओं का दर्पण है और यही विशेषताएँ खुद को अभिव्यक्तियों (तजल्लियात) में प्रकट करती रहती हैं। इसलिए यदि कहा जाता है कि जो वास्तव में मौजूद है वही परमेश्वर है या इसी को इस तरह भी कहा जा सकता है कि जो कुछ वास्तव में मौजूद है वही ब्रह्मांड भी है। इब्न-ए-अरबी के इस विचारधारा से प्रभावित होकर ग़ालिब ने अपनी एक ग़ज़ल के एक शेर में हस्ती औरशून्यता के अस्तित्व से पहले इनकार किया है फिर प्रश्न किया कि अगर ये दोनों नहीं है तो खुद ग़ालिब का अस्तित्व क्या है?
हस्तीहै, नकुछ अदम है ग़ालिब।
आखिर क्या है, है नहीं है।।
परमेश्वर और ब्रह्मांड के बारे में संदेह ग्रस्त होने के बाद पता चलता है कि ग़ालिब ने सच्चाई की खोज की है। इसलिए इब्न-ए-अरबीके दूसरे विचारों को अपने शेर में इस तरह व्यक्त करते हैं।
देहर जुज़ जलवा-ए-यकताई-ए-माशूक़ नही
हम कहाँ होते अगर हुस्न न होता खुदबीन
इस शेर में वेह्द्त-उल-वजूद के इस सिद्धांत को पेश किया गया जिसमें कहा गया है कि यह ब्रह्मांड जिसे बहुसंसार कहा जाता है वह वास्तव में एकल परमेश्वर का अभिव्यक्ति है। इसे बनाए जाने का उद्देश्य पूर्ण सौंदर्य(सुंदरम् अर्थात् शिवम्) कीअभिव्यक्तिहै अर्थात परमेश्वर ने यह दुनिया इस लिए बनाई कि वह खुद को इस दुनिया के आईने में देख सके और साथ ही उन्हें पहचाना जा सके।
इसीलिए ग़ालिब ने एक दूसरे शेर में कहा:
आराइश-ए-जमाल से फारिग नही हनूज़
पेश-ए-नज़र है आईना दएम नक़ाब में
अर्थात्परमेश्वर नेइस दुनिया को सुंदर से सुंदर बनाने का काम लगातार जारी रखा है ताकि वह अपना पूर्णसौंदर्य देख सके। दूसरे शब्दों में यह भी कहा जा सकता है कि यह दुनिया परमेश्वर का सूचक है।ग़ालिब ने वास्तव में इस शेर में शेख इब्न-ए-अरबी के उस सिद्धांत को भी प्रस्तुत किया है जिस में कहा गया है कि यह संसार हर पल परमेश्वर के अस्तित्व का लाभ प्राप्त कर रहा है।इस संबंध में इब्न-ए-अरबी का एकेश्वरवाद सिद्धांत यह है:
अस्तित्व एक या एकल है। और केवलवही उपस्थित है। यही अस्तित्व एकल परमेश्वर है, अल्लाह है, ईश्वर है, पूर्ण सत्य है कि अपने विभिन्न नामों से प्रसिद्ध है। हर वस्तु जो उसके अलावा या अतिरिक्त है, केवल उसी एकल अस्तित्व की एक अभिव्यक्ति है। मानो यह ब्रह्मांड, यह सारे का सारा प्रकृति जगत इसी परमेश्वर का आईना है। ब्रह्मांड की ईश्वर से समानता को हम अपने मूल जौहर और विशेषताओं के संदर्भ में ही पहचान सकते हैं। अर्थात् जौहर की समानता के आधार पर। मानो यह सब ब्रह्मांड इसी पूर्ण अस्तित्व तजल्ली (अभिव्यक्ति) है या फिर यूं कहिए कि ब्रह्मांड परमेश्वर की एक स्थिति है। इस सिद्धांत की व्याख्या के लिए ग़ालिब ने विभिन्न प्रकार के अलग अलग रंग के फूलों को उदाहरण के तौर पर पेश किया है
है रंग लाला-व-गुल-व-नस्रीन जुदा जुदा
हर रंग मे बहार का इसबात चाहिए
अर्थात संसार का कण कण अपने रंग और रूप के आधार पर अलग हैं लेकिन इन सब में परमेश्वर का जलवा (अभिव्यक्ति) मौजूद है।
परमेश्वर और मनुष्य से संबंधित इब्न-ए-अरबीका मानना है कि इन दोनों के बीच समानता, अस्तित्व, करीबऔरसाथ का रिश्ता है। परमेश्वर और मनुष्य के बीच निकट और साथ का रिश्ता के लिए कुरान की यह आयत पेश किया जाता है:“نحناقرباليهمنحبلالوريد” अर्थात् हम उसकी शह-ए-रग (वह नस जिसमें आत्मा रहती है।) और इस आयत के माध्यमसे इब्न-ए-अरबी कहना चाहते हैं कि परमेश्वर स्वयं बन्दे का अंग और हाथ पैर हैं,से भी अधिक इससे करीब हैं। इब्न-ए-अरबी अपने इस सिद्धांत के तर्कमें एक और हदीस पेशकश करते हैं: خلقالآدمعليصورتهअर्थात् हमने आदम को अपनी ही सूरत पर बनाया। इब्न-ए-अरबी वास्तव में यह साबित करना चाहते हैं कि मनुष्य परमेश्वर की विशेषताओं का देहयुक्त है। परमेश्वरकेनामोंप्रतिबिंब में मनुष्य के महत्व को दर्शाते हुए उन्होंने अपनी पुस्तक” फसूसुलहुक्म(فصوصالحكم)”मेंसारेसंसारको सर्वोच्च आदमी सेऔर परमेश्वर की अभिव्यक्ति और परमेश्वर की महिमाको आत्मा से उपमा देकर बताया कि मनुष्य जब तक इस संसार में पैदा नहीं हुआ था उस समय तक दुनिया बेजान शरीर की तरह थी क्योंकि इसमेंआधिकारिक महिमा की अभिव्यक्ति नहीं थी लेकिन जब मनुष्य पैदा हुआ तो जगत के शरीर में जान पैदा हो गई और वह पूरा मनुष्य हो गया। इब्न-ए-अरबी के इस कथन से पता चलता है कि परमेश्वर की शासक जैसी महिमा केवल मनुष्यों में ही नजर आती है। उर्दू के कवि आतिश ने इस अवधारणा की व्याख्या इस शेर में की है:
ज़हूर आदम-ए-खाक़ीसेयहहमकोयक़ीनआया
तमाशाअंजुमन का देखने खिल्वत नशीनआया
अर्थात् खिल्वत नशीन(परमेश्वर)मनुष्यको पैदा करकेइस अंजुमन अर्थात इस संसार का तमाशा देखनेआया है।
अल्लामाइकबालनेपरमेश्वरके अपने नामों तथा विशेषताओं में निर्धारित होकर इस प्रेक्षण योग्य ब्रह्माण्ड में उपस्थिति होने का कारण यह दिया है कि वह खुद जिंदगी की अनुग्रहकारी प्रकृति की तलाश में बेचैन और अशांत रहताहै क्योंकि यह दुर्लभ मोती(मनुष्य) भी इसी एक महान सागर का अशांत बूंद है। इकबाल के निकट उल्लेख किया गया मोती दुर्लभ है जिसे उन्होंने महान ब्रह्मांड से अभिव्यक्त किया है और कहा है कि मनुष्य पर दिव्य वास्तविकता के रहस्य और संहिता स्वतः प्रकट होते चले जाते हैं और उसे निरंतर यह अहसास होता रहता है कि सर्वशक्तिमान परमेश्वर और मानव आत्मा के बीच जो पर्दा था वह हट गया। इसलिए अल्लामा ने कहाहै:
नमूद उसकी नमूद तेरी, नमूद तेरी नमूद उसकी।
ख़ुदा को तू बेहिजाब करदे, ख़ुदा तुझे बेहिजाब करदे
मनुष्य और परमेश्वर के बीच जो समानता है इससे परमेश्वर का रहस्य कहीं उजागर न हो जाए इस आशंका को व्यक्त इकबाल ने एक शेर में इस तरह किया है।
तूने यह क्या ग़ज़ब किया मुझ को भी फ़ाश कर दिया
मैं ही तो एक राज़ था सीनये कायनात में
इसलिए सूफी विचारधारा के अनुसार इस दुनिया में कोई भी वस्तु ऐसी नहीं है जिसमें परमेश्वर का जलवा मौजूद न हो तो फिर जाति, धर्मों, क्षेत्रीयता और भाषा को आधार बनाकर समाज में घृणा फैलाने वालों के चक्रव्यूह में हम कैसे फंस जाते हैं। आज न केवल भारत बल्कि पूरी दुनिया में हिंसा का बाजार गर्म है। ऐसा लग रहा है कि शैतानी शक्तियों और मानवीय और दिव्य शक्तियों के बीच युद्ध जारी है। शैतानी शक्तियां मानवीय और दिव्य शक्तियों को हराकर पूरी दुनिया में अपना साम्राज्य स्थापित करना चाहती हैं। इसके लिए शैतानी शक्तियां, मासूम और भोले-भाले युवाओं को धर्म के नाम पर गुमराह कर रही हैं। धार्मिक गुरु के रूप में आतंकवादी अपनी जादुई भाषण से नौजवानों को अपने जाल में फंसा रहे हैं और उनके दिलों में नफरत का जहर फैला रहे हैं।इसलिए अब बुद्धिजीवियों और मानवीय शक्तियों को एक साथ भटके हुए नौजवानों को सही रास्ता दिखाने और उन्हें बुराई और अच्छाई, उचित और अनुचित में जो अंतर है उसे परिभाषित करना आवश्यक है।
विवेकानंदने सत्य कहा था कि, सूरज हिंदू और बौद्ध, मुस्लिम और ईसाई पर समान रूप से अपना प्रकाश डालताहै। यहां न कोई अच्छा है और न बुरा । उनका संदेश स्पष्टथा:मदद करो, लड़ाई नहीं; शांति रखो, मतभेदनहीं। यदि आप एक हिन्दू पैदा हुए होतोएक अच्छा हिन्दू बनो; एक मुस्लिम पैदा हुए होतो एक अच्छा मुसलमान बनो। विवेकानंद ने यह भी कहाथा कि जीवन का वैदिक तरीका, अंधविश्वास की परतों से अपनेमें निहित तर्कशक्ति को बचाने के लिए किया गया था।इसलिए यदि आप अपने आस्था के प्रति सच्चे हैं तो आप एक अच्छे भारतीय होंगे। भारतीयों की नैतिक शक्ति से एक शक्तिशाली भारत उभरेगा और आधुनिक राष्ट्र भारतीयकरण के माध्यम से बनाया जाएगा।
“Pre-Established harmony” सिद्धांत से संबंधितलाइबनीज़ के दर्शन, वैदिक धर्म और इस्लाम मज़हब के बारे में विद्वानों और सूफियों के विचारों का जो आकलन प्रस्तुत किया गया इसके प्रकाश में कहा जा सकता है कि जो सामंजस्य प्रकृति की व्यवस्था में है वही सामंजस्य सामाजिक स्तर पर भी होना चाहिए क्योंकि समाज प्रकृति की व्यवस्था से अलग कोई वस्तु नहीं है।
संदर्भ:
- फलसफेके बुनियादी मसाएल, क़ाज़ी क़ैसरुल इस्लाम, पृष्ठ: 144
- अल्लामा अख़लाक़हुसैन देहलवी, वैदिक धर्म और इस्लाम, पृष्ठ – 9,19
- Speaking Tree, Times of India
- मैकश अकबराबादी, नकद-ए-इकबाल, पेज नंबर-96
- डी.सी.मनजूदास, आई.एफ.एस, Social Harmony and Economic Development
- कुल्यात -ए -इक़बाल, अल्लामाइक़बाल
- दीवान -ए -ग़ालिब, असदुल्लाहखानग़ालिब
- शैख़मोहयुद्दीनइब्न-ए-अरबी, वहदत-उल-वजूदऔरमसाएल-ए –तसव्वुफ
- Sufi Path of Love: The Spiritual Teachings of Rumi, Rumi, William C. Chittick
- कबीरदासकाकवितासंग्रह, कबीरदास
- वेदांत दर्शन : एक संक्षिप्तपरिचय, Internet
डॉ. शैख़ अक़ील अहमद
एसोसिएट प्रोफेसर
दिल्ली विश्वविद्यालय
मोबाइल :09911796525/ 88514487
Email: [email protected]
Website: people.du.ac.in/~aahmad